मैं आपको दलाल लगता हूं क्या?’ प्रस्ताव सुनते ही मैंने कुछ गुस्से से पूछा। वाकई अजीब प्रस्ताव था। वे चाहते थे, मैं सरकार के लिए दस परसेण्ट बाबा से बात करूं। नहीं, पाकिस्तान वाले दस परसेण्ट बाबा से नहीं अपने भारत वाले बाबा से। मेरी नाराजगी का उन पर कोई असर दिखाई नहीं दिया। उन्होंने कहा, ‘जोशीजी, आप स्थिति की नजाकत को समझिये। सरकार इस टाइप की बातें नहीं कर सकती। एक तो बाबाओं से बात करने पर सरकार को बड़े कटु अनुभव मिले हैं और फिर यह मामला तो आर्थिक है।’
‘वाह, ये क्या बात हुई? आप बदनाम दलालों से बात कर लेंगे, पर अपने देश के बाबा से बात नहीं करेंगे, जबकि इसमें सरकार का ही हित है। टाइम लो और सीधे बात करो।’ मेरी बड़बड़ बीच में रोककर उन्होंने कहा, ‘नहीं कर सकते भाई। सरकार की इमेज का सवाल है, दुनिया के देश क्या कहेंगे, अपने फायदे के लिए सरकार बाबाओं से मदद लेने लगी?’
और भी कुछ तर्क दिए उन्होंने और मुझे पूछना पड़ा, ‘अच्छा बताओ, क्या बात करनी है बाबा से?’ जवाब देने में देर न करते हुए उन्होंने कहा, ‘दो-तीन स्तरों पर बात करनी है आपको। पहला तो यही कि बाबा सरकार को आशीष देंगे क्या? दूसरा यह कि हमारे कुछ यूनिट्स हैं, जो बरसों से घाटे में चल रहे हैं। क्या दस परसेण्ट बाबा उनको फायदे में लाने का आशीर्वाद देंगे? हम उनकी दस परसेण्ट की शर्त मानने को तैयार हैं। और घाटे के सरकारी उद्यमों को लाभ में लाने का आशीर्वाद देने को बाबा तैयार हो जाएं, तो बाबा से पूछना, वे पूरी सरकार के बजट को ही फायदे में लाने का आशीर्वाद-प्रयास कर सकेंगे क्या? आप तो जानते हैं, बजट घाटा बढ़कर कैसी मुसीबत बन गया है? देश की प्रतिष्ठा का प्रश्न है।’
आप तो जानते हैं, मेरे जैसा आम भारतीय पत्रकार कुछ राष्ट्रीय भावनाओं से भरा-सा रहता है। मुझे लगा, क्या हर्ज है, आम लोगों को काला पर्स रखने जैसी हिदायतें देकर हालत सुधारने का आशीष देने वाले बाबा से अगर एक बार देश की सरकार के बारे में बात कर ली जाए। फेल भी हुए, तो अब तक जितना नुकसान सरकार को हो चुका है, उससे ज्यादा तो क्या होगा? मुझे मध्यस्थता के लिए तैयार देख, उन्होंने उन तमाम उद्यमों की सूची सामने रख दी, जिन्हें सरकार बरसों से घाटे में चला रही है। उन्होंने सुझाव दिया, ‘देखो, पहले एक-दो यूनिट को आशीष देने की बात करना। यूनिट प्रॉफिट में आ गई, तो हम प्रॉफिट का दस परसेण्ट बाबा को दे देंगे।’
‘कैसे दे देंगे? किस नियम से दे देंगे?’ मैंने आशंका के साथ कहा क्योंकि अपन सब जानते हैं, सरकार को वादे से पलटते देर नहीं लगती। उन्होंने आश्वस्त किया, ‘वो सब आप हम पर छोड़ दीजिए। एक बार बाबा राजी हो जाएं, फिर हम सारा काम पक्का कर लेंगे, रिटन में। और हाँ, अगर आपको लगे, तो उनसे पूरी सरकार को ही आशीर्वाद देने के लिए बात करना।’
सारी ऊंच-नीच वे मुझे समझा चुके थे। अब तक जो मुझे लग रहा था कि ये सरकार भी कहां मुझे झंझट में फंसा रही है, दस परसेण्ट बाबा के आशीष से पूरे देश को होने वाले लाभ की सोच मुझे लगने लगा, चलो, जिन्दगी में मुझसे भी कोई तो महान काम होने जा रहा है। दलाल टाइप का है तो क्या हुआ, है तो आम जनता की भलाई का।
स्वाभिमान-टाइप भावनाओं से कुछ भरकर मैं दस परसेण्ट बाबा से टाइम लेने के लिए फोन लगाने ही वाला था कि उन्होंने मुझे टोका, ‘दो बातें और कहनी थी जोशीजी! आपके-मेरे बीच ही रहनी चाहिए। एक तो यह कि वे काले पर्स की तरह कालेधन आदि की कोई शर्त न लगाएं, दूसरे बाबाओं की तरह। और खास बात यह कि यह जो दस परसेण्ट वे लेते हैं, उसके बजाय तीस या चालीस परसेण्ट कर सकते हैं क्या? दस की जगह पन्द्रह परसेण्ट ले लें, लेकिन बाकी हमें लौटा दें। अण्डर-हैण्ड। आप तो समझते हैं, सरकारी काम में ये तो करना ही पड़ता है ना।’
उस दिन बाबा का फोन नहीं लगा। लौट गए वे। मैंने दो-तीन बार उनसे कहा, यह जो आपका अण्डर-हैण्ड है ना, दस की जगह चालीस परसेण्ट वाला, इसी ने तो लुटिया डुबाई है, लेकिन आप तो जानते हैं, ऐसी बातें सरकार और सरकारी लोग सुनते हैं कभी? अब रोजाना फोन कर रहे हैं, ‘क्या जोशीजी, दस परसेण्ट बाबा से बात की या नहीं? देखो, देश की आर्थिक स्थिति का सवाल है।’
क्या ख्याल है आपका? बाबा को फोन लगाकर पूछूं, ‘क्या वे दस की जगह चालीस परसेण्ट बाबा होने को तैयार हैं?’ - रोमेश जोशी
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