मेरे घर के छोटे से दरवाजे में प्रवेश के लिए रावण को अपने नौ सिर फोल्ड करने पड़े, तो मुझे थोड़ी-सी शर्मिंदगी महसूस हुई। मुझे आज समझ में आया, हमारे बड़े वालों के बंगलों-कोठियों के दरवाजे इतने विशाल क्यों होते हैं। रावणश्री के आने पर वे कभी शर्मिंदा नहीं होते होंगे। जो सिर रावणजी ने फोल्ड किए, उन पर गुस्सा, निराशा, कुण्ठा आदि भावों को देख लगा था, आज रावणजी मुझे रामायण में वर्णित अपनी औकात दिखाएंगे। खुशी हुई कि घर में मेरे अलावा कोई नहीं है। पत्नी भी बाज़ार गई हुई थी। प्रणाम आदि के बाद मैं रावण की औकात झेलने के लिए सिर झुकाकर तैयार हो गया। लेकिन वे बहुत देर सिर नीचा किए बैठे रहे। कुछ बोले नहीं। मैंने ही पूछा, ‘बताइए रावणश्री, क्या सेवा कर सकता हूं।’
‘आप क्या सेवा करेंगे? आप तो लेखक हैं न?’ शायद कटाक्ष किया उन्होंने। वाकई आज इस देश का लेखक किसी की क्या सेवा कर सकता है? कर भी सके तो कोई उससे अपेक्षा नहीं करता। अपनी ओर से वह जिसकी भी सेवा करता है, वे चाहे जो हों, उन्हें राम ही मानता है, रावण नहीं। मुझे लगा पहले रावण की गलतफहमी को सुधार दिया जाए। मैंने गर्व से कहा, ‘जी नहीं, मैं लेखक नहीं, पत्रकार हूं, कहिए?’
‘जो भी हों, क्या आप बता सकते हैं कि आजकल यह सब जो चल रहा है, इसमें मेरा दोष क्या है?’ उन्होंने कुछ गुस्से और कुछ दु:खी स्वर में पूछा।
‘आपको पता नहीं क्या?’ मैंने प्रतिप्रश्न कर डाला, असल में उनके मूड को देखते हुए मैंने उत्तर से बचने का प्रयास किया था। दूसरे मैं अर्जुनसिंह को रावण की उपमा दिए जाने के विवाद में पडऩा भी नहीं चाहता था। उन्होंने बात पूरी की, ‘यही न कि मैंने राम की पत्नी का अपहरण किया, लेकिन क्या आप लोगों को याद नहीं, उन्होंने बस जरा-सी बात पर मेरी सुन्दर बहन शूर्पनखा की नाक लक्ष्मण से कटवाई थी। आप जानते हैं, तब हमारे यहां सुप्रीम कोर्ट नहीं थी, जहां मैं बहन की नाक काटने का प्रकरण लेकर जाता। उस जमाने में तो फैसला इसी तरह से होता था।’
‘सो तो सब जानते हैं, लेकिन अब आप हमारी संस्कृति के अंग बन चुके हैं, इसीलिए कभी-कभार लोग इक-दूजे को रावण की उपमा से नवाज देते हैं। कोई बहुत बुरा इरादा नहीं रहता उनका, बल्कि कई बार तो वे यह काम बड़े आदर के साथ पितृतुल्य मानते हुए करते हैं।’ रावण का दर्द समझते हुए मैंने कुछ सांत्वना के स्वर में कहा, लेकिन मुझसे सहमत न होते हुए उन्होंने कहा, ‘मैंने तो सीताजी का अपहरण करने के बाद उनको पूरा सम्मान दिया, छुआ तक नहीं। है तुम्हारे देश में ऐसा एक भी नेता, जिसने किसी भी किस्म की सीता का अपहरण किया हो और फिर उससे मनमाना दुव्र्यवहार नहीं किया हो।’
रावण के आरोप के निहितार्थ को समझते हुए मैं सिहर गया। हमारे नेताओं द्वारा महिलाओं से किए गए व्यवहार के अनेक अनछपे किस्से याद आ गए। शपथ लेकर की गई गद्दारी भी याद आ गई। अब मुझे उनके आगे रावणजी का दोष तो कुछ भी नहीं लग रहा था। फिर भी अब तक स्पष्ट नहीं हुआ था कि रावणजी किस अपेक्षा से मेरे पास आए हैं। वे रामायण के पूरे सन्दर्भ मेरे आगे दुहराएं, उससे पहले ही मैंने उनसे पूछ लिया, ‘आपका इधर मेरे गरीबखाने पर कैसे आना हुआ?’
लगा, मेरे सवाल से उन्हें यहां आने का उद्देश्य याद आ गया। उन्होंने कहा, ‘ पत्रकारजी, मैं आपसे यह आशा लेकर आया हूं कि आप जल्दी से एक लेख लिखकर अपने नेताओं को बताएं कि असल में रावण का अर्थ क्या है। अगर किसी को रावण की उपमा दी जाए तो उसकी औकात क्या होनी चाहिए। आप नेताओं को बताएं कि वे बिना कारण मेरी उपमा एक-दूसरे को न दें। अपनी औकात में रहें। संस्कृति को समझें। रामायण फिर से पढ़ें। उसके बाद कोई मेरे जैसा दिखे, तो अवश्य उसे मेरी उपमा दें। अरे, जिसने संकट के समय विदेशियों का साथ दिया, उसे विभीषण की उपमा देने के बजाय रावण कह रहे हो। नासमझ कहीं के…।’
बात पूरी होते ही रावणश्री चले गए। चाय भी पीने से मना कर दिया। जब रावण लेख लिखने का अनुरोध करे, तो आप मना कर सकते हैं क्या? जहां तक मेरी जानकारी है, इस देश का शायद ही कोई लेखक ऐसा कर पाया होगा। रावणश्री ने अनुरोध किया है, अस्तु पालन कर रहा हूं। - रोमेश जोशी
No comments:
Post a Comment