मनी प्लांट की चोरी (Money Plant ki Chori)


ए....ई लड़की... क्या कर रही है?’’
हे राम, धत्त अंकल....आप भी कैसे हो।’’
कैसे हो का क्या मतलब?”
मैं....आपके मनीप्लान्ट की एक डाल चुरा रही थी।
अरे.....तो इसमें चोरी करने की क्या बात है। ले जा जितनी डालें चाहिए |”
नहीं अंकल। मनी प्लान्ट को तो चुराना ही पड़ता है |”
ओह।’’ मैंने कहा। 

कितने धीमे कदम रखते हुए उसने मेरे मकान का गेट खोला और अन्दर प्रवेश किया था। हवा के झोंके से गेट हिला होगा,  यह सोचते हुए भी मैंने खिड़की से बाहर नजर डाल ली थी। परदे के पीछे वह मुझे देख नहीं पाई और घर की दीवार के सहारे फैल रहे मनीप्लान्ट का एक छोटा सा टुकड़ा उसने काट लिया था।
मेरा यह मनीप्लान्ट इतनी जल्दी फैलता है कि कई बार मुझे इसकी शाखाएँ काटकर फेंक देनी पड़ती हैं। असल में मुझे आपत्ति मनीप्लान्ट की कलम काटे जाने पर नहीं थी। आपत्ति उसके बिना आज्ञा काटे जाने पर थी।
पड़ोस की यह लड़की अकसर मेरे यहाँ से पूजा के लिए फूल ले जाती और उसके लिए कोई आज्ञा भी नहीं लेती। हमारे सम्बन्ध ही कुछ ऐसे हैं। बरसों से पास-पास रह रहे हैं, ऐसे में रोज-रोज क्या आज्ञा लेना। मुझे लगा कि मनीप्लान्ट काटने से मुझे उस लड़की को रोकना नहीं था। आज्ञा देते हुए मैंने कहा, “ठीक है ले जा। ’’
नहीं अंकल,” अब कोई फायदा नहीं। मनीप्लान्ट को तो चोरी करके ही लाना पड़ता है। नहीं तो इसका कोई असर नहीं होता। अब फिर कभी आऊँगी और ऐसे चुराऊँगी कि आपको पता ही नहीं चलेगा।’’ उसने वापस लौटते हुए कहा।
क्या असर होता है, ऐसे मनीप्लान्ट चुराने का?” जानते हुए भी मैंने पूछा।
उसने किंचित शरमाते हुए जवाब दिया, “ पैसा आता है घर में।’’
चोरी का मनीप्लान्ट नहीं हो, तो नहीं आता क्या?’’ मैंने पूछा तो गेट के बाहर जाते हुए उसके कदम रुक गए। पूरे विश्वास के साथ उसने कहा, “आता तो है, मगर उतना नहीं आता जितना चोरी का मनीप्लान्ट होने पर आता है।’’
तो क्या जिनके यहाँ भी मनीप्लान्ट है, वे सब चुरा कर ही लेकर आए हैं?’’
मुझे कुरैद-कुरैदकर सवाल करते देख, शायद वह समझ गई कि मैं सब कुछ जानते हुए भी उससे सवाल कर रहा हूँ। शायद इसीलिए उसने जवाब देने के बजाय मुझे सूचना दी, “अंकल आपको पता नहीं, आपके यहाँ से तो कितने ही लोग मनीप्लान्ट चुराकर ले जाते हैं। और कहते हैं आपके मनीप्लान्ट से पैसा खूब आता है |”
ऐसा ?” चौंका दिया उसकी सूचना ने।
कितने लोग तो आपके यहाँ आते ही इसलिए हैं कि आपकी नजर बचाकर इस मनीप्लाण्ट की एक डाल काटकर ले जाएँ। और आपने मुझे देख लिया।’’ उसने निराशा के साथ कहा। मैंने कोई जवाब नहीं दिया। मुझे सोच में पड़ा देख वह चली गई।
मैं जब इस मकान में रहने आया उसके पहले से ही मनीप्लान्ट यहाँ पर लगा है। मैं सोचने लगा, अगर मेरे यहाँ पहले से मनीप्लान्ट नहीं लगा होता तो क्या मैं इसे कहीं से चुराकर लाने की सोचता? यानी मनीप्लान्ट के मामले में मेरी हालत व्यापारी के उस बेटे के समान है, जिसका बाप इतना कमाकर रख गया हो कि उसे अब ग्राहकों को लूटने की जरूरत नहीं रही हो। क्या ऐसा बेटा अपने आप को सन्त घोषित कर सकता है?
मैं तो इस सवाल का जवाब कभी पा ही नहीं सकता कि जिस स्थिति में मैं हूँ ही नहीं, उस स्थिति में अगर होता तो क्या होता?
मगर मेरे लिए विचार का मुद्दा अब वे लोग हैं, जो मेरे घर से मनीप्लान्ट चुरा कर ले गए। शायद चोरी का नहीं होने के कारण ही इस मनीप्लान्ट ने अब तक तो मेरी आर्थिक हालत पर कोई असर नहीं दिखाया है और मैं अभी भी उसी कड़की का सामना कर रहा हूँ, जो यहाँ आने के पहले से मेरी संगिनी थी।
अपने आप को एक आम आदमी के करीब मानने के झगड़े में न डालते हुए, एक गुथ्थी मेरे सामने यह भी है कि वे लोग कौन हैं जो मेरे यहाँ से मनीप्लान्ट चुराकर ले गए और उसके प्रभाव से धनवान हो गए? मंच के कवियों की तरह मैं आम जनता के सामने यह सवाल उछालना चाह रहा हूँ - अरे कोई है, जो मुझे बताए कि मेरा मनीप्लान्ट चुराकर ले जाने वाले का नाम क्या है? क्या कहा, व्यापारी, ठेकेदार, नेताजी, भ्रष्ट अफसर।
हाँ, याद आता है मुझे। एक-एक करके आए थे ये लोग, मेरे घर पर। मेरे भले की कैसी-कैसी बातें की थी इन्होंने। पैसा लेकर मुझे सामान दिया और मुनाफा कमाते हुए ऐसा बताया जैसे मुझ पर एहसान कर रहे हों। मेरा मकान बनाया, मजदूरों की मजदूरी अभी बाकी है और छत टपकने लगी है, मगर मकान की चाबी मुझे ऐसे सोंपी जैसे वरदान या आशीर्वाद दे रहे हों।
नेताजी कहलाने के बाद कैसे-कैसे आश्वासन दिए इन्होंने कि अब आश्वासन शब्द सुनकर ही काँपने लगता हूँ। और वे अफसर जिन्होंने मुझ लंगड़ को निर्धारित मात्रा में रिश्वत दिए बिना मुझे मेरे जन्म का प्रमाण पत्र देने से भी इनकार कर दिया था, वे इस भारतमाता की गोद में मेरे जन्म लेने को एक अवैधानिक अफवाह से ज्यादा कुछ नहीं मानते थे।
जब दर्शक मेरा इशारा समझने लगेंगे, तब मैं अपनी आवाज को और बुलन्द करते हुए चकित होकर कहूँगा कि मरे घर से तो वे मनीप्लान्ट का एक जरा सा टुकड़ा चुराकर ले गए थे, फिर ऐसा क्यों हो गया कि मेरे जैसे सारे के सारे लोगों के घर के मनीप्लान्ट तो बेअसर हो गए और उनके महलों में पूरा का पूरा असर दिए जा रहे हैं? क्या वे देश के सारे घरों से मनीप्लान्ट के टुकड़े चुराकर ले गए हैं?
मुझे मालूम है कविता के इन भावों को अच्छी तरह ढालकर जोरदार तालियों की फसल काटी जा सकती है। अन्त में एक प्रश्न यह भी पूछना चाहूँगा कि जब मनिप्लान्ट के इन छोटे-छोटे टुकड़ों को चुराकर देश का हर चोर ठेकेदार, व्यापारी, अफसर, नेता धनवान हो सकता है, तो हमारी सरकार ही क्यों गरीब है? क्या उसे भी मेरी तरह बिलकुल मालूम नहीं है कि उसके मनीप्लान्ट से टुकड़े चुरा-चुराकर ये लोग कैसे अमीर हो रहे हैं?  
या फिर किसी दिन वित्त मन्त्री को सुझाव दूँ कि वे मेरे घर चुपके से आएँ और मेरा मनीप्लान्ट चुराकर ले जाएँ। चाहें तो पूरा का पूरा उखाड़कर ले जाएँ। मेरे घर तो यह बिलकुल भी असर नहीं दिखा रहा है, लेकिन अगर चुराए जाने पर ही यह असर करता है, तो बेहतर होगा कि सरकार ही पूरा का पूरा इसे चुरा ले। तब इस मनीप्लान्ट के असर से कोई तो ऐसा अमीर होगा, जिसका अमीर होना,  मुझ जैसे करोड़ों निरर्थक मनीप्लान्ट के मालिकों के लिए फायदेमन्द होगा।
देखिए, मैं भी कितनी दूर की सोच गया। भला मनीप्लान्ट का भी कोई असर होता है? इसके बजाय तो मुझे अपने कमरे में जाकर अपनी अधूरी रचना पूरी करनी चाहिए। छप गई तो मुझे कुछ तो मनी मिल सकेगा और नहीं तो भी मेरे अन्दर चले जाने से पड़ोस की उस लड़की को मेरे यहाँ से मनीप्लान्ट चुराने का अगला मौका तो मिलेगा। यहाँ खड़े रहने से तो कुछ नहीं होगा। इसलिए मेरे इस चिन्तक को अब आज्ञा दीजिए।
"जय-हिन्द!"

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